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साझेदारी फर्म: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और आवश्यक बातें(Historical Background and The Essentials to Constitute Partnership Firm)

 

साझेदारी फर्म: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और आवश्यक बातें

(Historical Background and The Essentials to Constitute Partnership Firm)




 ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ परिचय

(Introduction with Historical Background )

साझेदारी फर्म व्यवसायिक संगठनों के सबसे पुराने रूपों में से एक है, जहाँ दो या दो से अधिक व्यक्ति आपसी सहमति से लाभ और हानि साझा करने के लिए व्यवसाय करने के लिए एक साथ आते हैं।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

साझेदारी की अवधारणा प्राचीन सभ्यताओं से जुड़ी है, जिसमें मेसोपोटामिया, ग्रीस, रोम और भारत शामिल हैं। प्राचीन भारत में, व्यापार और वाणिज्य गिल्ड और संयुक्त उद्यमों के माध्यम से संचालित होते थे, जो आधुनिक साझेदारी के समान थे। हिंदू कानून और इस्लामी कानून ने भी साझेदारी को व्यवसाय के एक तरीके के रूप में मान्यता दी।

मध्ययुगीन काल के दौरान, यूरोपीय व्यापार गिल्ड और व्यापारी संघों ने पूंजी और संसाधनों को एकत्र करने के लिए साझेदारी मॉडल को अपनाया। औद्योगिक क्रांति (18वीं-19वीं शताब्दी) ने व्यापार और औद्योगीकरण में वृद्धि के कारण साझेदारी को और लोकप्रिय बनाया।

साझेदारी के लिए पहला कानूनी ढांचा अंग्रेजी भागीदारी अधिनियम, 1890 में स्थापित किया गया था, जिसने भारत सहित कई देशों में साझेदारी कानूनों के विकास को प्रभावित किया। भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932, आज भारत में साझेदारी को नियंत्रित करता है।


 कानून की अवधारणा

(Concepet of Law )

साझेदारी दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच का संबंध है जो एक व्यवसाय से होने वाले लाभ को साझा करने के लिए सहमत होते हैं, जिसे उनमें से कोई एक या सभी दूसरों की ओर से कार्य करते हुए चलाते हैं।

साझेदारी की परिभाषा (धारा 4, भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932)

"साझेदारी उन व्यक्तियों के बीच का संबंध है, जो सभी या उनमें से किसी एक द्वारा सभी के लिए कार्य करते हुए चलाए जा रहे व्यवसाय के लाभ को साझा करने के लिए सहमत हुए हैं।"

यह परिभाषा तीन प्रमुख तत्वों को स्थापित करती है, जो एक वैध साझेदारी के लिए मौजूद होने चाहिए:


1. समझौता - साझेदारी भागीदारों के बीच एक समझौते पर आधारित होनी चाहिए।


2. लाभ साझा करना - व्यवसाय को लाभ (और हानि) साझा करने के इरादे से चलाया जाना चाहिए।


3. पारस्परिक एजेंसी - प्रत्येक भागीदार फर्म का एजेंट होता है और उसे अन्य भागीदारों की ओर से कार्य करने का अधिकार होता है।


4. भागीदारों की संख्या - कम से कम दो भागीदार होने चाहिए। कंपनी अधिनियम, 2013 के अनुसार अधिकतम संख्या 50 है।


5. वैध व्यवसाय - साझेदारी वैध व्यवसाय उद्देश्य के लिए बनाई जानी चाहिए।


साझेदारी की कानूनी प्रकृति

साझेदारी कंपनी की तरह एक अलग कानूनी इकाई नहीं है। इसके बजाय, यह व्यक्तियों का एक संघ है, जिसका अर्थ है कि:

भागीदार व्यक्तिगत रूप से व्यावसायिक ऋणों के लिए उत्तरदायी होते हैं।

फर्म अपने नाम से मुकदमा नहीं कर सकती या उस पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता; भागीदारों को व्यक्तिगत रूप से ऐसा करना होगा।

व्यवसाय के दौरान किसी भी भागीदार की कार्रवाई सभी भागीदारों पर बाध्यकारी होती है।

साझेदारी के प्रकार

1. इच्छानुसार साझेदारी - कोई निश्चित अवधि नहीं; कोई भी भागीदार किसी भी समय नोटिस देकर इसे भंग कर सकता है।

2. विशेष साझेदारी - किसी विशिष्ट परियोजना या समय अवधि के लिए बनाई गई, पूरी होने के बाद भंग हो जाती है।

3. सामान्य साझेदारी - सभी भागीदारों के पास समान अधिकार और दायित्व होते हैं।

4. सीमित देयता भागीदारी (एलएलपी) - भागीदारों की सीमित देयता होती है, और फर्म की एक अलग कानूनी पहचान होती है।


भागीदारों के अधिकार और कर्तव्य (अधिनियम की धारा 9-17)

प्रबंधन में भाग लेने का अधिकार।

लाभ साझा करने और खातों का निरीक्षण करने का अधिकार।

ईमानदार होने और सद्भावना से कार्य करने का कर्तव्य।

फर्म के व्यवसाय के साथ प्रतिस्पर्धा न करने का कर्तव्य।


साझेदारी का विघटन

साझेदारी को निम्न कारणों से भंग किया जा सकता है:

आपसी सहमति।

निश्चित अवधि की समाप्ति।

साझेदार की मृत्यु या दिवालियापन।

कदाचार या विवाद के मामले में न्यायालय के आदेश।


निष्कर्ष:

साझेदारी विश्वास, आपसी दायित्वों और साझा जिम्मेदारियों पर आधारित होती है। भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 इसके गठन, अधिकारों और विघटन को नियंत्रित करता है, जो निष्पक्षता और कानूनी स्पष्टता सुनिश्चित करता है।



चित्रण

(Illustrations)

उदाहरण 1: A और B मिलकर परिधान व्यवसाय शुरू करने का निर्णय लेते हैं। वे साझेदारी विलेख पर हस्ताक्षर करते हैं जिसमें कहा गया है कि वे लाभ और हानि को समान रूप से साझा करेंगे। वे पूंजी का योगदान करते हैं और व्यवसाय के प्रबंधन में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं।

यह एक वैध भागीदारी है क्योंकि:

एक समझौता है।

व्यवसाय वैध है।

वे लाभ और हानि साझा करते हैं।

आपसी एजेंसी है।


उदाहरण 2: व्यवसाय की कमी के कारण कोई भागीदारी नहीं

X, Y और Z संयुक्त रूप से भूमि के एक टुकड़े के मालिक हैं, लेकिन वे किसी भी व्यावसायिक गतिविधि में संलग्न नहीं हैं। वे केवल किरायेदारों से किराया वसूलते हैं।

यह साझेदारी नहीं है क्योंकि:

कोई व्यावसायिक गतिविधि नहीं है - केवल संपत्ति का स्वामित्व है।

किराए से होने वाली आय को व्यावसायिक लाभ नहीं माना जाता है।


उदाहरण 3: आपसी एजेंसी की अनुपस्थिति के कारण कोई साझेदारी नहीं

M, N के व्यवसाय को पैसे उधार देता है और ब्याज के बजाय लाभ का एक प्रतिशत प्राप्त करने के लिए सहमत होता है। हालाँकि, प्रबंधन या निर्णय लेने में M की कोई भूमिका नहीं है।

यह साझेदारी नहीं है क्योंकि:

M व्यवसाय संचालन में शामिल नहीं है।

कोई पारस्परिक एजेंसी नहीं है - M लेन-देन में N को बाध्य नहीं कर सकता।


उदाहरण 4: व्यवसाय साझेदारी नहीं बना सकता

P और Q तस्करी का संचालन करने और लाभ साझा करने के लिए सहमत हैं।

यह वैध साझेदारी नहीं है क्योंकि:

व्यवसाय अवैध है, और कानून गैरकानूनी समझौतों को मान्यता नहीं देता है।



 केस कानूनी चर्चाएँ

Case Law Discussion 

1. कॉक्स बनाम हिकमैन (1860) - पारस्परिक एजेंसी आवश्यक है

तथ्य:

एक देनदार के व्यवसाय को लेनदारों द्वारा एक समझौते के तहत लिया गया था, जहाँ उन्होंने लाभ साझा किया था, लेकिन फर्म का सक्रिय रूप से प्रबंधन नहीं किया था।

मुद्दा:

क्या लेनदारों को भागीदार माना जाता था क्योंकि वे लाभ साझा करते थे?

निर्णय:

हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स ने फैसला सुनाया कि केवल लाभ-साझाकरण किसी व्यक्ति को भागीदार नहीं बनाता है जब तक कि पारस्परिक एजेंसी (यानी, फर्म की ओर से कार्य करने की क्षमता) न हो। चूँकि लेनदार व्यवसाय को नियंत्रित नहीं करते थे, इसलिए वे भागीदार नहीं थे।


कानूनी सिद्धांत:

कोई व्यक्ति तब तक भागीदार नहीं होता जब तक कि उसके पास पारस्परिक एजेंसी न हो, भले ही उसे लाभ का हिस्सा मिले।


2. मोल्वो, मार्च एंड कंपनी बनाम कोर्ट ऑफ वार्ड्स (1872) - स्लीपिंग पार्टनर्स की देयता

तथ्य:

एक स्लीपिंग पार्टनर (जो निवेश करता है लेकिन प्रबंधन नहीं करता) को फर्म के ऋणों के लिए उत्तरदायी ठहराया गया।

मुद्दा:

क्या स्लीपिंग पार्टनर फर्म के वित्तीय दायित्वों के लिए उत्तरदायी है?

निर्णय:

प्रिवी काउंसिल ने फैसला सुनाया कि स्लीपिंग पार्टनर्स सहित सभी पार्टनर फर्म के ऋणों के लिए उत्तरदायी हैं, जब तक कि फर्म को सीमित देयता भागीदारी (एलएलपी) के रूप में संरचित न किया गया हो।

कानूनी सिद्धांत:

यहां तक कि चुप या निष्क्रिय भागीदार भी फर्म के दायित्वों के लिए कानूनी रूप से जिम्मेदार हैं।


3. दुलीचंद लक्ष्मीनारायण बनाम आयकर आयुक्त (1956) - कोई अलग कानूनी पहचान नहीं

तथ्य:

एक साझेदारी फर्म ने कर लाभ के लिए एक अलग कानूनी इकाई होने का दावा किया।

मुद्दा:

क्या एक साझेदारी फर्म अपने भागीदारों से एक अलग कानूनी इकाई है?

निर्णय:

सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि साझेदारी कंपनी की तरह एक अलग कानूनी इकाई नहीं है। यह केवल व्यक्तियों के संघ के रूप में मौजूद है, और फर्म के मुनाफे पर भागीदारों के हाथों में कर लगता है।

कानूनी सिद्धांत:

साझेदारी फर्म का कोई स्वतंत्र कानूनी व्यक्तित्व नहीं होता है - यह अपने भागीदारों का विस्तार है।


4. सुरेश कुमार सांघी बनाम पंजाब नेशनल बैंक (1999) - साझेदारी का विघटन

तथ्य:

एक भागीदार फर्म को भंग करना चाहता था, जबकि अन्य इसका विरोध कर रहे थे। विघटन की शर्तों को तय करने के लिए मामला अदालत में लाया गया था।

मुद्दा:

क्या कोई एकल भागीदार साझेदारी को भंग करने के लिए बाध्य कर सकता है?

निर्णय:

अदालत ने फैसला सुनाया कि यदि साझेदारी स्वेच्छा से है, तो कोई भी भागीदार नोटिस देकर इसे भंग कर सकता है। यदि साझेदारी निश्चित अवधि के लिए है, तो इसे केवल विशेष परिस्थितियों (जैसे, कदाचार, दिवालियापन) में ही भंग किया जा सकता है।

कानूनी सिद्धांत:

इच्छा से साझेदारी को किसी भी समय भागीदार के नोटिस द्वारा भंग किया जा सकता है, लेकिन निश्चित अवधि की साझेदारी को विघटन के लिए वैध कारणों की आवश्यकता होती है। 


5. केथ स्पाइसर लिमिटेड बनाम मैन्सेल (1970) - केवल लाभ साझा करने का मतलब साझेदारी नहीं है

तथ्य:

किसी व्यक्ति ने साझेदारी के अधिकार का दावा किया क्योंकि उन्होंने व्यवसाय के लाभ को साझा किया था।

मुद्दा:

क्या लाभ साझा करने से कोई व्यक्ति स्वतः ही भागीदार बन जाता है?

निर्णय:

न्यायालय ने फैसला सुनाया कि केवल लाभ साझा करने से साझेदारी नहीं बनती जब तक कि प्रबंधन और निर्णय लेने में सक्रिय भागीदारी न हो।

कानूनी सिद्धांत:

किसी व्यक्ति को भागीदार माने जाने के लिए फर्म में उसका नियंत्रण और पारस्परिक एजेंसी होना चाहिए।


केस लॉ का विश्लेषण

पारस्परिक एजेंसी (कॉक्स बनाम हिकमैन) वह मुख्य कारक है जो यह निर्धारित करता है कि कोई व्यक्ति भागीदार है या नहीं।

सोते हुए भागीदार (मोल्वो, मार्च एंड कंपनी) अभी भी फर्म के ऋणों के लिए उत्तरदायी हैं।

साझेदारी की कोई अलग कानूनी पहचान नहीं होती (दुलीचंद लक्ष्मीनारायण), जिससे भागीदार व्यक्तिगत रूप से देनदारियों के लिए जिम्मेदार होते हैं।

विघटन (सुरेश कुमार सांघी) साझेदारी के प्रकार (इच्छानुसार बनाम निश्चित अवधि) पर निर्भर करता है।

केवल लाभ-साझाकरण (केथ स्पाइसर लिमिटेड) व्यावसायिक निर्णयों पर नियंत्रण के बिना साझेदारी स्थापित नहीं करता है।

क्या आप चाहते हैं कि मैं और मामले जोड़ूं या किसी विशिष्ट मामले को विस्तार से समझाऊं?


 विश्लेषण

(Analysis)

पारस्परिक एजेंसी का महत्व: साझेदारी को अन्य व्यावसायिक मॉडलों से अलग करने वाला मुख्य सिद्धांत यह है कि प्रत्येक भागीदार फर्म की ओर से कार्य कर सकता है।

कानूनी मान्यता: साझेदारी के वैध होने के लिए एक स्पष्ट समझौता और एक वैध व्यावसायिक उद्देश्य होना चाहिए।

विघटन: साझेदारी को आपसी सहमति, दिवालियापन, कदाचार या समझौते के उल्लंघन से भंग किया जा सकता है।

साझेदारी फर्म अपने लचीलेपन, गठन में आसानी और साझा निर्णय लेने के कारण व्यापक रूप से इस्तेमाल किया जाने वाला व्यवसाय मॉडल है। हालाँकि, इसमें कुछ चुनौतियाँ और जोखिम भी हैं। नीचे साझेदारी फर्मों के लाभ, नुकसान और कानूनी पहलुओं का विस्तृत विश्लेषण दिया गया है।


1. साझेदारी में पारस्परिक एजेंसी का महत्व

साझेदारी के सबसे महत्वपूर्ण तत्वों में से एक पारस्परिक एजेंसी है, जिसका अर्थ है कि प्रत्येक भागीदार फर्म की ओर से कार्य कर सकता है, और उनके कार्य सभी अन्य भागीदारों को बांधते हैं।

लाभ: यह त्वरित निर्णय लेने और कुशल व्यावसायिक संचालन की अनुमति देता है।

नुकसान: एक भागीदार का गलत कार्य (जैसे, धोखाधड़ी, खराब निवेश) पूरी फर्म को जोखिम में डाल सकता है।

उदाहरण: कॉक्स बनाम हिकमैन (1860) में, अदालत ने फैसला सुनाया कि कोई व्यक्ति केवल इसलिए भागीदार नहीं है क्योंकि वे लाभ साझा करते हैं जब तक कि पारस्परिक एजेंसी न हो।


2. भागीदारों की देयता

एक सामान्य साझेदारी में, सभी भागीदारों की असीमित देयता होती है, जिसका अर्थ है कि वे फर्म के ऋणों के लिए व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार होते हैं।

लाभ: यह भागीदारों को व्यापारिक लेन-देन में जिम्मेदारी से काम करने के लिए प्रेरित करता है।

नुकसान: यदि फर्म दिवालिया हो जाती है, तो भागीदारों की व्यक्तिगत संपत्ति का उपयोग ऋण चुकाने के लिए किया जा सकता है।

केस उदाहरण:

मोल्वो, मार्च एंड कंपनी बनाम कोर्ट ऑफ वार्ड्स (1872) में, एक निष्क्रिय भागीदार को फर्म के ऋणों के लिए उत्तरदायी ठहराया गया था क्योंकि साझेदारी समझौते में देयता को सीमित नहीं किया गया था।


3. अलग कानूनी इकाई का अभाव

कंपनियों के विपरीत, एक साझेदारी फर्म अपने भागीदारों से एक अलग कानूनी इकाई नहीं है।

लाभ: एक निगम की तुलना में इसे बनाना और प्रबंधित करना आसान है।

नुकसान: फर्म अपने नाम से मुकदमा नहीं कर सकती है या उस पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है; भागीदार व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार होते हैं।

उदाहरण:

दुलीचंद लक्ष्मीनारायण बनाम आयकर आयुक्त (1956) में, सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि साझेदारी एक अलग कानूनी इकाई नहीं है।


4. साझेदारी फर्मों का पंजीकरण

भारत में, साझेदारी फर्म का पंजीकरण वैकल्पिक है लेकिन अत्यधिक अनुशंसित है।

पंजीकरण के लाभ:

फर्म तीसरे पक्ष के खिलाफ मुकदमा दायर कर सकती है।

भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 के तहत भागीदार अपने अधिकारों को लागू कर सकते हैं।

पंजीकरण न करने के नुकसान:

फर्म बाहरी लोगों पर मुकदमा नहीं कर सकती, भले ही वे अनुबंधों का उल्लंघन करते हों।

भागीदारों के बीच विवादों को अदालत में नहीं सुलझाया जा सकता।


5. विघटन और संघर्ष

भागीदारी में असहमति, मृत्यु या भागीदारों के दिवालिया होने के कारण संघर्ष और विघटन की संभावना होती है।

विघटन के सामान्य कारण:

आपसी सहमति।

भागीदारी अवधि की समाप्ति।

भागीदार का कदाचार या दिवालियापन।

विवादों के मामले में अदालत का हस्तक्षेप।

केस उदाहरण:

सुरेश कुमार सांघी बनाम पंजाब नेशनल बैंक (1999) में, अदालत ने फैसला सुनाया कि जब साझेदारी भंग होती है, तो भागीदारों को बाहर निकलने से पहले खातों का निपटान करना चाहिए।


विश्लेषण का निष्कर्ष

भागीदारी फर्म लचीलापन, साझा विशेषज्ञता और त्वरित निर्णय लेने की सुविधा प्रदान करती हैं।

हालांकि, असीमित देयता, अलग कानूनी पहचान की कमी और संघर्ष उन्हें जोखिम भरा बनाते हैं।

जोखिम को कम करने के लिए, साझेदारी के कामों को अच्छी तरह से तैयार किया जाना चाहिए, और फर्मों को पंजीकरण पर विचार करना चाहिए।

बेहतर सुरक्षा के लिए, भागीदार पारंपरिक साझेदारी के बजाय सीमित देयता भागीदारी (एलएलपी) का विकल्प चुन सकते हैं।



निष्कर्ष और सुझाव

(Conclusion and Suggestions )

निष्कर्ष

भागीदारी फर्म कई व्यक्तियों को अपने संसाधनों, कौशल और विशेषज्ञता को संयोजित करने की अनुमति देकर व्यवसाय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। वे लचीलापन, गठन में आसानी और साझा जिम्मेदारी प्रदान करते हैं, जिससे वे कई व्यवसायों के लिए पसंदीदा विकल्प बन जाते हैं। हालाँकि, असीमित देयता, अलग कानूनी पहचान की कमी और संभावित विवाद चुनौतियाँ पेश करते हैं।

एक अच्छी तरह से तैयार की गई साझेदारी विलेख और भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 के तहत कानूनी आवश्यकताओं का पालन सुचारू संचालन सुनिश्चित करने में मदद कर सकता है। जबकि पारंपरिक भागीदारी कई मामलों में अच्छी तरह से काम करती है, सीमित देयता भागीदारी (LLP) भागीदारों की देयता को सीमित करके अधिक सुरक्षित और कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त विकल्प प्रदान करती है।


भागीदारी फर्मों को मजबूत करने के लिए सुझाव

1. समझौते को औपचारिक रूप दें - 

एक अच्छी तरह से संरचित लिखित साझेदारी विलेख में भूमिकाओं, जिम्मेदारियों और विवाद समाधान तंत्र को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाना चाहिए।


2. फर्म को पंजीकृत करें -

भले ही भारत में पंजीकरण अनिवार्य नहीं है, लेकिन यह कानूनी लाभ प्रदान करता है, जैसे मुकदमा दायर करने का अधिकार।


 3. देयता को स्पष्ट रूप से परिभाषित करें – 

भागीदारों को अपनी देयताओं के बारे में पता होना चाहिए और व्यक्तिगत देयता के विरुद्ध सुरक्षा के लिए एलएलपी संरचना पर विचार कर सकते हैं।


4. एक निकास रणनीति विकसित करें – 

भागीदार की मृत्यु, दिवालियापन या विवाद जैसी अप्रत्याशित घटनाओं को संभालने के लिए साझेदारी समझौते में एक स्पष्ट विघटन प्रक्रिया शामिल की जानी चाहिए।


5. नियमित ऑडिट और पारदर्शिता – 

उचित वित्तीय रिकॉर्ड और पारदर्शिता बनाए रखने से संघर्षों को रोका जा सकता है और व्यावसायिक स्थिरता सुनिश्चित की जा सकती है।


6. वैकल्पिक विवाद समाधान (एडीआर) – 

लंबी कानूनी लड़ाई से बचने के लिए, भागीदारों को समझौते में मध्यस्थता या मध्यस्थता खंड शामिल करना चाहिए।


7. कर और कानूनी दायित्वों का अनुपालन – 

कर कानूनों और व्यावसायिक विनियमों का पालन सुनिश्चित करने से कानूनी जटिलताओं को रोका जा सकेगा।

इन सुझावों को लागू करके, साझेदार अपनी विश्वसनीयता बढ़ा सकते हैं, जोखिमों को कम कर सकते हैं और व्यावसायिक वातावरण में दीर्घकालिक स्थिरता सुनिश्चित कर सकते हैं।


ग्रंथ सूची

(Bibliography)

1. भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932

2. लिंडले और बैंक्स ऑन पार्टनरशिप

3. एम.सी. कुच्छल, व्यावसायिक कानून

4. अवतार सिंह, भागीदारी का कानून

5. कानूनी डेटाबेस से विभिन्न केस लॉ संदर्भ


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